काशी से उज्जैन


पंकज ‘कंवल’

                       मानव जीवन और यात्राओं का गहरा नाता है। कमोबेश हर इंसान अपने जीवन में कोई न कोई यात्रा अवश्य करता है। एक बच्चे के लिए जो पहली याद रहने वाली यात्रा होती है वह नाना का घर, यहीं से उसके जीवन की यात्रायें शुरू हो जाती हैं। इससे इतर अगर हम यात्राओं के गंभीर पहलू पर बात करें तो मानव विकास की यात्रा का जो क्रम है वह यही बताता है कि मनुष्य के विकास की यात्रा में यात्राओं का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह वही यात्रायें हैं जो इतिहास में दर्ज हैं, किस्से कहानियों के रूप में या फिर एक दूसरे से सुनते सुनाते यहां तक पहुंची हैं। इसमें सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि उन विकास यात्राओं को हम इसलिए याद रख पाये क्योंकि वह वाचिक परम्परा के द्वारा हम लोगों तक पहंुची या फिर किस्से कहानियों अथवा इतिहास में कहीं न कहीं लिपिबद्ध की गयीं। इससे यह तो तय हो जाता है कि लेखक का मूल्यांकन वर्तमान समय करे या न करे लेकिन आने वाले समय को लेखक का मूल्यांकन करना ही होगा, और करेगा भी, करता भी रहा है, और यही सत्य है। अब तक दो बिन्दु उभर कर सामने आये हैं, एक तो यह कि मानव विकास क्रम में यात्राओं का प्रमुख स्थान रहा है, और दूसरी यह कि समाज के वर्तमान परिदृष्य पर चली लेखकों की कलम जिससे की आने वाली पीढ़ी इतिहास को आसानी से समझ सके। यात्राओं के प्रकार अलग अलग होते हैं, उन सबसे इतर हम बात करेंगे ऐसी यात्राओं पर जो साहित्येतिहास के महान लेखकों की जन्मभूमि से लेकर कर्मभूमि तक से जुड़ी हुई हैं। कहते हैं न कि हर व्यक्ति पर उसके आसपास के माहौल का बहुतायत में प्रभाव रहता है तो ऐसे महान कथाशिल्पियों के घर, गली, गांव रचनात्मक धरोहर हैं, हमारी विरासत हैं। इसलिए समय-समय पर उनके पुर्नअध्ययन की बेहद आवश्यकता है। इसलिए एक यात्रा उन लेखकों के घर-गलियों तक अवश्य होनी चाहिए, कमोबेश होती भी रहीं हैं। यह यात्रायें तब और महत्वपूर्ण हो जाती हैं जब कोई आलोचक, समीक्षक, कथाकार इन यात्राओं पर निकलता है। ऐसे ही जाने माने कथाकार व समीक्षक, यात्रावृतांत के लेखक डाॅ. विनय दास की पुस्तक ‘‘काशी से उज्जैन’’ आज हमारे हाथ में है, जिस पर हम कुछ चर्चा परिचर्चा आपसे करेंगे।

 

आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं डाॅ0 विनय दास : प्रसिद्ध रचनाकारों भारतेन्दु हरिशचन्द्र, कबीर, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचन्द्र, मुद्राराक्षस आदि के घर-गली तक ‘‘काशी से उज्जैन’’ पुस्तक के माध्यम से पड़ताल करने से पूर्व एक छोटी सी यात्रा पुस्तक के लेखक डाॅ. विनय दास के घर की आवश्यक है। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मेरा घर डाॅ0 दास के घर से बमुश्किल डेढ़-दो सौ कदम की दूरी पर है। इसलिए अक्सर हमारा उनसे मिलना जुलना होता ही रहता है। दो मंजिल के आलीशान मकान से पहले ही मुख्य दरवाजे से जैसे ही अंदर दाखिल होते हैं, एक फूस की कुटीनुमा बैठकी, जहां पर डाॅ0 विनय दास बैठ कर लेखन से लेकर साहित्य पर चर्चा परिचर्चा करते हैं, निश्चित ही यहां बैठकर सुकून महसूस किया जा सकता है, जो मैं अक्सर महसूस करता हूं। डाॅ0 दास सतनाम पंथ के प्रथम पावा साहेब गोसाईंदास की वंश परम्परा के उत्तराधिकारी हैं। श्री दास की प्रकाशित पुस्तकों में समीक्षात्मक पुस्तक ‘‘काव्य निकष पर बाराबंकी के कवि’, ‘साहित्य संवाद’, कविता संग्रह ‘समय साक्षी’, कहानी संग्रह ‘सही गलत के बीच’, ‘कलजुग वाया धनुषजज्ञ’, ‘परिपेक्ष्य को सही करते हुए’, ‘ज्वलंत समाज: हिन्दी उपन्यास’, उपन्यास ‘हगनहा ताल’ व ‘उपन्यास में समय’ आदि हैं। इसके अलावा श्री दास ने करीब आधा दर्जन पुस्तकों का संपादन भी किया। श्री दास को उप्र हिन्दी संस्थान द्वारा यशपाल नामित पुरस्कार, डाॅ0 अम्बेडकर फैलोशिप नेशनल अवार्ड भारतीय दलित साहित्य आकदमी दिल्ली के अतिरिक्त अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा डाॅ. विनयदास के व्यक्तित्व व कृतित्व पर छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर की छात्रा द्वारा शोध कार्य भी प्रकाशित किया गया है। साहित्य के प्रति उनके लगाव व किये गये कार्यों की लम्बी फेहरिश्त है। फिलहाल, इस समय श्री दास अपनी पुस्तक ‘‘काशी से उज्जैन’’ को लेकर चर्चा परिचर्चा में शामिल हैं।

 

12 अध्यायों में दर्ज हैं श्री दास की यात्रायें : ‘‘काशी से उज्जैन’’ यात्रा संस्मरण में श्री दास ने विभिन्न समयांतराल में की गयी यात्राओं को 12 अध्यायों में शामिल किया है। सबसे पहला अध्याय साहित्य कला संस्कृति की अमूल्य धरोहर काशी का है, जिसके माध्यम से वह भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्र के घर तक ले जाते हैं। दूसरी यात्रा में प्रेमचन्द के बहाने जानना लमही को, तीसरी यात्रा हमें काशी भीतर काशी के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद से मिलवाती है। इसके बाद क्रम बढ़ते हुए त्रिलोचन शास्त्री, कवि मृगेश, मुद्राराक्षस जी, कथाकार शिवमूर्ति, सुशील सिद्धार्थ तक यात्राओं का क्रम जाता है। इसी दौरान केदारनाथ, बद्रीनाथ वाया हरिद्वार ऋषिकेश की यात्रा, प्रयागराज, नर्मदा की परिक्रमा और ओंकारेश्वर के अलावा ‘बहाना साहित्य का जानना उज्जैन को’ आदि यात्रायें शामिल हैं।

 

धार्मिक स्थलों की यात्रा में आस्था, मान्यता के साथ दिखता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण : पुस्तक पर चर्चा से पूर्व मैंने एक छोटी सी यात्रा के माध्यम से डाॅ. विनय दास से परिचय कराया। उसी परिचय से पुनः शुरूआत करते हैं, चूंकि डाॅ0 दास एक शिक्षक व लेखक के साथ ही सतनाम पंथ संत परंपरा के उत्तराधिकारी महंत हैं और हम सभी जानते हैं कि सतनाम संप्रदाय के अनुयायी देश-दुनिया भर में हैं। फिर भी, उनके यात्रा संस्मरण में धार्मिक स्थलों पर की गयी यात्राओं को पढ़कर आपको लगेगा कि वह यात्राओं के दौरान महंत कम और लेखक या फिर यूं कहें कि समीक्षक अधिक नजर आयें हैं।

इस सम्बंध में लेखक व उ0प्र0 हिन्दी संस्थान लखनऊ के पूर्व निदेशक डाॅ0 सुधाकर अदीब जी के शब्दों में ‘‘सुप्रसिद्ध स्थलों की यात्रा लोग प्रायः धार्मिक अथवा ऐतिहासिक स्थलों की तीर्थयात्रा के रूप में करते हैं, या फिर विशुद्ध मनोरंजन के उद्देश्य से परंतु डाॅ0 विनय दास ने ‘काशी से उज्जैन’ तक के तमाम भ्रमण विशेषकर साहित्यिक तीर्थ यात्राओं को ध्यान में रखकर ही किए हैं’’।

डा0 दास धार्मिक स्थलों का इतिहास, आस्था, मान्यता, विश्वास की विस्तृत व्याख्या करते हैं तो साथ ही तर्क भी करते नजर आते हैं। धार्मिक स्थलों के भवनों के साथ ही वर्तमान में निर्मित आसपास के भवनों का वास्तुशिल्प, जनजीवन, लोगों से बातचीत, रहन-सहन आदि पर अपनी यात्राओं को केन्द्रित किया है। कहा जा सकता है कि यात्रायें अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल का काम करती हैं। अपनी यात्रा ‘प्रेमचन्द्र के बहाने जानना लमही को’ में डाॅ0 दास लिखते हैं कि ‘‘इस बार काशी में पहले की अपेछा सफाई भी अधिक थी, लोग गंगा में दातून करके थूकते न दिखे, घाटों पर डिटर्जेंट से कपड़ा धोते लोग न थे, पान मसाला की गंदी पीक से सभी सीढ़ियां रहित थीं, घाट का पानी भी साफ-सुथरा था। यह देखकर यह सच लगने लगता है कि मोदी जी के स्वच्छ भारत के नारे को यहां के लोग ही नहीं बल्कि आने वाले यात्रियों ने भी हृदय से स्वीकार कर लिया है’’।

देश-दुनिया में प्रसिद्ध तो अपनी ही गली अपरिचित दिखे लेखक : अपना सारा जीवन साहित्य की सेवा में खपा देने वाले असाधरण मनुष्य लेखक, कवि, साहित्यकार जिन्होंने अनगिनत कृतियां लिखीं जो आज भी लोगों की प्रेरणा बनी हुई हैं, ऐसे लेखक आमजनमानस के बीच कितना लोकप्रिय हैं? उनके जन्मस्थान से लेकर कार्यस्थल के आसपास वह कितना लोकप्रिय हैं? क्या अपने साहित्य की तरह वह भी आम जनमानस में समाए हैं? कुछ ऐसी पड़ताल भी करती दिखती हैं डाॅ0 विनय दास की यात्रायें। पहली ही यात्रा में जब वह प्रसिद्ध लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी के घर वाली गली में लोगों से पूछते-पूछते पहुंचे हैं तो लिखते हैं कि ‘‘यह आश्चर्यकारी और सुखद अहसास मेरे लिए था कि प्रारंभ से लेकर अंत तक लगभग हर आदमी भारतेन्दु बाबू के नाम और घर को जानता था। इससे लगा उनका साहित्य केवल किताबों में नहीं जनता के बीच भी है। उनका नाम चीरजीवी है’’।

वहीं जब मुंसी प्रेमचन्द्र जी के घर के लिए रवाना होते हैं तो वहां की खस्ताहाल यातायात व्यवस्था को देखकर शासन प्रशासन के प्रति उनके मन में रोष सा दिखता है। वह लिखते हैं कि ‘‘यहीं पाण्डेपुर से 10 रुपये प्रति सवारी की दर से आटो ‘लमही’ को जाता है। बेहद टूटी-फूटी, उबाड़-खाबड़ सड़क से शरीर के हर अंग को निःशुल्क व्यायाम हो रहा था। कथाकार के गांव को जाती सड़क की इस दुर्दशा पर रोना आ रहा था’’। एक जगह और वह लिखते हैं कि ‘‘पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी जब कभी अपनी चतुर बुद्धि और साहित्य के नाम पर कमाने-खाने (चाहे नाम कमाना ही क्यों न हो) से फुर्सत पायेगा तब शायद ही लमही आए’’। डाॅ0 विनयदास एक समीक्षक के तौर पर हमेशा लोगों व साहित्यकारों द्वारा पसंद किए जाते हैं, और उनका यह रूप हर जगह मुखर होकर सामने आता भी है। इन्हीं यात्राओं के दौरान वह साहित्य के तीर्थ कबीर प्राकट्य स्थल लहरतारा भी जाते हैं, जो कि अब लहरतारा सरोवर में तब्दील हो चुकी है। यहीं कबीर प्राकट्य स्थल भी है जिसे कबीर चैरा कहते हैं। यहीं पर कबीर की प्रतिमा भी उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित की गयी है, जिसकी पूजा अर्चना वहां मौजूद अनुयायियों द्वारा की जा रही थी। डाॅ0 विनय दास लिखते हैं कि बरबस ही उन्हें वहां कबीर जी का लिखा दोहा ‘‘पाहन पूजे हरि मिलै, तौ मैं पूजूं पहार। याते तो चाकी भली, पीस खाय संसार’’ याद आ जाता है।

 

लेखक / पत्रकार एवं जनसंदेश टाइम्स के संपादक डाॅ. सुभाष राय का कथन यहां प्रस्तुत करना आवश्यक है, वह लिखते हैं कि लेखक ‘‘जिस मिटृटी से उभरे, प्रेरणा प्राप्त की, शक्ति प्राप्त की, जिस परिवेश में पले-बढ़े और पढ़ाई-लिखाई की, घुमाई की वह कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जब भी इन्हें समझने की कोशिश की जायेगी, उन जगहों की ओर ध्यान जायेगा जिन पर इनका वजूद खड़ा हुआ है......बेशक! विनय दास ने अपनी इन यात्राओं में इन सूत्रों को पकड़ने और सहेजने की कोशिश की है। स्थानीय लोगों या परिजनों से बातचीत में कुछ नयी बातें भी जानने में आयी हैं। ऐसी बातें जो हम अभी तक नहीं जानते थे।*

 

कथ्य, शिल्प व शैली के प्रभाव में बांधती हैं यात्राये : डा0 दास की लेखन शैली के प्रभाव से पाठक शुरूआत से अंत तक बंधा रहता है। कारण स्पष्ट है, यात्राओं में कभी कथा तो कभी संस्मरण के साथ ही इतिहास और वर्तमान में जो आवाजाही निरंतर बनी रहती है वह पाठकों को बांध कर रखती है।

 

समीक्षक डाॅ0 श्याम सुंदर दीक्षित के शब्दों में ‘‘श्री दास अपनी विम्ब विधायनी कल्पना शक्ति के बल पर अतीत को पुनः मूर्त करके पाठकों की जिज्ञासा वृत्ति को पूर्ण तुष्ट करने में सक्षम सिद्ध होते हैं और उनकी यह वर्तमान से अतीत की आवाजाही भी यात्रावृत्तों के मनोरम होने का कारण बनती है’’।

 

इतिहास के झरोखे से अगर हम देखते हैं तो पाते हैं कि यात्रा संस्मरण की शुरूआत भारतेंदू बाबू हरिश्चन्द्र जी द्वारा की गयी। यात्रा साहित्य की बात हो तो राहुल सांस्कृत्यायन जी ने किन्नर देश में, मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा सहित लगभग दस पुस्तकें लिखीं, जो कि यात्रा साहित्य की अमूल्य उपलब्धि हैं। इसी क्रम में आगे बढ़ते हैं तो अज्ञेय की अरे यायावर रहेगा याद, निर्मल वर्मा की चीड़ों की चांदनी, मोहन राकेश की आखिरी चट्टान यात्रा वृतांत में मील के पत्थर साबित होते रहे हैं। जिनमें पर्यटन स्थलों के इतिहास, उसके वजूद के साथ ही प्राकृतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य लेखकों, साहित्यकारों द्वारा भी यात्रावृतांत लिखे गये होंगे, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसी क्रम में उद्योग नगर प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित यात्रा संस्मरण ‘‘काशी से उज्जैन’’ के लेखक डाॅ0 विनय दास को साधुवाद।