पढ़ाई में बिल्कुल अव्वल, सरकारी नौकरी के सर्वाधिक पात्र लल्लन ने बेरोजगारी से परेशान होकर कैफे की शुरूआत की। नाम उनका लल्लन है मगर भारत के संविधान में उल्लिखित समस्त भाषाओं और बोलियों के ज्ञाता, हिन्दी-अंग्रेजी-संस्कृत सहित सभी मुख्य भाषाओं में एमए के साथ ही डबल पी0एच0डी0 होने के कारण बाइज्जत लल्लन चाचा के नाम से पुकारे जाते हैं। लल्लन चाचा की हिन्दी पर पकड़ बहुत अच्छी व प्रभावी है। उनका शब्दकोष वर्तनियों से परिपूर्ण है। उनके उच्चारण के झंकरित स्वर जिह्वा पर होने वाले स्पर्शों को तरंगित कर देते हैं। चूंकि बुजुर्ग हैं इसलिए उपमा-उपमान-सम्मान के साथ बताना पड़ रहा है कि लल्लन चाचा विषय, विषय के भीतर के अनुविषय, उपविषय आदि के भीतर तक उतर जाना बखूबी जानते हैं, यही बात उनकी गैरमौजूदगी में कहनी हो तो कहेंगे कि ‘बाल की खाल निकालने में माहिर’ हैं। लल्लन चाचा हैं बहुत मक्खन जैसे, जो सब पर लगते हैं लेकिन उन पर कोई मक्खन का असर नहीं होता है।

खैर, मुद्दा यह है कि लल्लन कैफे में सब कुछ मिलता है। उतार-चढ़ाव को लल्लन चाचा बहुत ही प्रेमपूर्वक संभालते हैं। उनके कैफे में बहुत से गड्ढे भी हैं, जहां लोग अक्सर फिसल जाते हैं, जो बहुत शातिर होते हैं उन्हें चाचा अपनी बातों से फिसला ही देते है, मतलब फिसलना तय है। यूं तो लल्लन चाचा हम सबके आभासी चाचा हैं, लेकिन इतने अधिक आभासी हैं कि हर किसी को अपने आसपास आभास होते ही रहते हैं। मिल जाते हैं गलियों के सन्नाटे में, मोहल्ले की चर्चाओं में, गांवों की पगडंडियों पर, निजी प्रतिष्ठानों पर खरीदारी करते हुए तो सरकारी महकमों में योजनाओं का लाभ दिलाते हुए। अभी तक आपने सिर्फ कहावत सुनी है दीवारों के कान होते हैं, लेकिन वह कान लल्लन चाचा के ही हैं, जो दो कमरों के बीच की दीवार से सब कुछ सुनकर लेकर आ रहे हैं आपको सुनाने, गुदगुदाने। बस यह समझ लो टोटली आनन्द की पोटली हैं हमारे लल्लन चाचा।